सबसे पहले तो मैं दैनिक भास्कर – जयपुर की प्रशंसा करना चाहूंगा, क्यूंकि जिस तरह इनका अखबार रेप जैसे सेंसिटिव मुद्दे पे, बिना डरे, लगातार आवाज़ उठा रहा है, वह बेहत सराहनीय है I ऐसी ख़बरों से जनता को न केवल लोक प्रशासन की कुशलता का बेहतर अंदाज़ा होता है बल्कि समाज के कई विवादित मुद्दों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाने व विचार विमर्श करने की शक्ति मिलती है|
जहां तक भास्कर द्वारा पढ़ी गयी 743 एफआईआर का सवाल है, तो इसमें कोई दौराहा नहीं है की ज़्यादातर बाल दुष्कर्म की घटनाएँ घर पे या परिचितों के घर पर ही होती है I इससे पहले एनसीआरबी ने अपनी 2016 की एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की थी की 94.6 % मामलों में बाल दुष्कर्मी परिचित ही थे I लेकिन चौंका देने वाली बात ये है की इन सभी रिपोर्टों में ‘ऑनलाइन चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज’ की घटनाओं का बिलकुल ज़िक्र नहीं है I जिसके कारण हमे ऐसा महसूस हो रहा है की दुष्कर्म की घटनाएं सिर्फ फिजिकल स्पेस – यानी की घर, स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल, या धार्मिक स्थल आदि – तक ही सीमित है I जबकि ऐसा नहीं है|
तो क्या है मामला? असल में बात ये है की एनसीआरबी ने 2017 से पहले ऑनलाइन चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज जैसे साइबर क्राइम्स, का कोई सेपरेट रिकॉर्ड या डाटा मेन्टेन नहीं कियाI यहाँ तक की इससे पहले हमारे पास नेशनल लेवल पर भी कोई ऐसी रिपॉजिटरी या केटेगरी नहीं थी जहाँ पे साइबर क्राइम्स अगेंस्ट चिल्ड्रन की घटनाएँ दर्ज हुई हो I इस वजह से आप देखेंगे की ज़्यादातर राज्यों के ऑफिसियल डाटाबेस में ऑनलाइन चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज के मामले ही नहीं है|
क्या ऐसा संभव है की राज्य भर में एक भी ऑनलाइन चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज की घटना नहीं हुई हो? वो भी आज के युग में जहाँ टेलीकॉम कम्पनीज़ रोज़ का 1 GB फ्री इंटरनेट डाटा देती है, बच्चे ज्यादातर समय माँ बाप से दूर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पे बिताते है और पीडोफाइल्स घर व स्कूल की बजाय साइबर स्पेस से मिल रहे क्रिमिनल अवसरों द्वारा बच्चियों को सेक्शुअली ग्रूम करते हैं?
अगर नहीं, तो ऐसे मामलों को कैसे ट्रीट किया जाता है? आम तौर पे ऑनलाइन बाल यौन शोषण के मामले आईटी एक्ट के सेक्शन 67B के अंदर दर्ज किये जाते है, जिसमें ये (मामले )एडल्ट्स के विरुद्ध हुए साइबर क्राइम्स के साथ मिल जाते हैI हालाँकि पार्लियामेंट की एक पैनल के निर्देश के बाद ‘ऑनलाइन चाइल्ड सेक्शुअल अब्यूज़’ के मामले पुलिस द्वारा अलग से मेन्टेन होने लगे हैI किन्तु 2017 से पहले ये अलगाव न होने के कारण हम साइबर स्पेस से होने वाले बाल यौन शोषण के खतरों का आंकलन नहीं कर पा रहे है|
सबसे पहले हमें ये समझना होगा की: भास्कर अभियान रेप पीड़िताओं को न्याय दिलवाने के लिए आवाज़ नहीं उठा रहा बल्कि राज्य भर में पोक्सो कोर्ट की प्रयाप्त सेवा न होने के कारण उनके पास न्याय पाने के जो अवसर बंद हैं, उन्हें खोलने और बढ़ाने की कोशिश कर रहा है I ये एक बहुत ही सकारात्मक सोच है, जिसे हम अंग्रेजी में ‘एक्सेस टू जस्टिस’ कहते हैं Iअगर रेप पीड़िताएं पोक्सो कोर्ट जैसी बेसिक सुविधाओं को एक्सेस नहीं कर पाएंगी तो ये उन्हें न्याय देने से इंकार करने के बराबर हैं I
इस तर्क के अनुसार, पोक्सो कोर्ट खोलने से ‘एक्सेस टू जस्टिस’ के अवसर तो ज़रूर बढ़ेंगेI पर क्या नाबालिक पीड़िताओं को इन्साफ मिल पायेगा? इसकी गुंजाईश ना के बराबर हैI आईये जानते हैं, क्या है इसके मुख्य कारण I
अगर 95% मामलों में दुष्कर्मी घर का सदस्य है, तो इससे ‘रिपोर्टिंग ऑफ़ क्राइम’ पर काफी फरक पड़ेगा; बच्ची के माँ-बाप दुष्कर्म की रिपोर्ट थाने में दर्ज़ करवाने की बजाये, परिवार के उस सदस्य (यानी दुष्कर्मी) को सजा से बचाने की कोशिश करेंगेI और तो और, क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट (आर्डिनेंस) एक्ट, 2018 के प्रख्यापित होने के बाद, बाल दुष्कर्म मामलों में ‘नॉन-रिपोर्टिंग’ की रेट और भी ज़्यादा बढ़ गयी है I ऐसा इसलिए, क्यूंकि इस अमेंडमेंट के तहत 12 से कम उम्र की बच्चियों से दुष्कर्म का खामियाज़ा सजाये मौत है; वही 16 साल की बच्चियों के विरुद्ध दरिंदगी की सजा 20 साल की कठोर कारावास हो गयी है|
इतनी सख्त सजा की वजह से अधिकतर माँ-बाप ‘फैमिली लॉयल्टी’ को कायम रखते हुए दुष्कर्मी को किसी भी तरह के दर्द, सामाजिक अपमान व कलंक से बचाने की कोशिश करेंगेI इस कोशिश के चलते, ये भी संभव है की पीड़ित ने माँ-बाप को दुष्कर्म का खुलासा किया हो, परन्तु घर परिवार के लोग बच्ची की बात में विशवास ही ना करे या फिर ‘लॉयल्टी कॉन्फ्लिक्ट’के कारण उस पे झूंठ भूलने का आरोप लगा देंI इसके अलावा कोर्ट कचहरी में जाने से परिवार के टूटने का डर भी बच्ची पे मानसिक दवाब बना सकता है.
जोकि भास्कर द्वारा पढ़ी जाई 743 एफआईआर में 55% दुष्कर्म घर पे या परिचितों के घर पे होते दिखे, इसका ये मतलब नहीं है की दुष्कर्मी अनजान होने से नाबालिक पीड़िताओं को न्याय मिल पायेगाI पोक्सो कोर्ट खोलना और कोर्ट द्वारा न्याय मिलना दो अलग अलग प्रोसेस हैI जहाँ हम पोक्सो कोर्ट खुलने से न्याय मिलने की बात कर रहे है, वही हम ये भूल रहे है की फांसी (मृत्यु दंड) से बचने के लिए अनजान दुष्कर्मी रेप के बाद नाबालिक बच्चियों को जान से मार देंगे ताकि कोर्ट में गवाही देने के लिए प्राइम विटनेस ही ना रहेI ऐसे हादसों की संभावना बेहत अधिक है क्यूंकि प्राइम विटनेस के न होने से एविडेंस मिट जायेगा और वे ‘डेथ रो’ से बच निकलेंगेI इससे साफ़ प्रतीत होता है की की ‘डेथ पेनल्टी रेजीम’ दुष्कर्मियों के दिमाग में बिलकुल खौफ पैदा नहीं करेगा (और न ही कर रहा है)I उल्टा इस पॉलिसी से मासूम बच्चियों को दुष्कर्म से साथ अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ेगा I इसलिए ये एक काउंटर प्रोडक्टिव पॉलिसी है, और पोक्सो कोर्ट खुलने से कन्विक्शन रेट में कोई ज़्यादा फरक नहीं पड़ेगा|
भास्कर काफी हद तक अपनी बातों में सही है. और उनके अभियान के प्रति मेरा पूरा समर्थन हैI पर मुझे ऐसा लगता है की हम पॉक्सो कोर्ट्स न होने और पेंडेंसी रेट ज़्यादा होने पे इतना ज़्यादा ध्यान दे रहे है की, न्याय न मिल पाने के असल मुद्दों को समझ ही नहीं रहे है (और ना ही समझने की दरकार कर रहे है)I दुष्कर्म पीड़िताओं को न्याय न मिल पाने का सबसे प्रमुख कारण है – इम्प्लीमेंटेशन ऑफ़ लॉ|
देखिये पोक्सो एक्ट इसलिए बनाया गया था ताकि बच्चों के लिए एक समर्थ वातावरण बन सके– जिसमे बच्चों से डील करने के लिए पुलिस स्टेशन व कोर्ट में स्पेशल प्रोसीजर्स व प्रोविज़न हो; जिसमे बच्चों को अपने केस के दौरान क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम से समर्थन मिले; और जिसके अंत में बच्चो को प्रॉपर रिहैबिलिटेशन मिल सकेI पर क्या ये प्रोविजनस सही तरीके से इम्प्लीमेंट हो रहे है? दुर्भाग्य वश ऐसा नहीं हो रहा है, जिसकी वजह से पोक्सो मामलो में पेंडेंसी रेट ज़्यादा है और कन्विक्शन रेट काफी कम|
ऊपरी तौर पे देखने पर हमे ऐसा लग रहा है की, पोक्सो कोर्ट न होने के कारण दुष्कर्मी छूट रहे हैI पर ऐसा करने से हम कई ठोस मुद्दों से अपना ध्यान बटा रहे हैI जैसे की: आज भी इन्वेस्टीगेशन की शुरुआत में दुष्कर्म पीड़िताओं को अपमानजनक व असंवेदनशील प्रश्न पूछे जाते है; पीड़िताओं को आदर और गरिमा से ट्रीट करने की ट्रेनिंग इन्वेस्टीगेशन ऑफिसर्स को नहीं दी जाती; इन्वेस्टीगेशन और ट्रेल के दौरान पीड़िताओं को किसी भी तरह का ट्रॉमा काउंसलिंग, साइको-लीगल सपोर्ट या फिर मेडिकल असिस्टेंस नहीं मिलता; मेंटली चैलेंज्ड पीड़िताओं को सुरक्षित रखने के लिए किसी भी तरह के सेफ होम्स नहीं है; सिस्टम के पैट्रिआर्केल कल्चर की वजह से ट्रायल के हर एक चरण में पीड़िताओं को संदेह की नज़रो से देखा जाता है और विक्टिम ब्लेमिंग की जाती है; इन्वेस्टीगेशन में दोष के कारण ट्रायल शुरू होने में असामान्य देरी होती है, जिससे कारण पोक्सो मामलो में 89.6 % पेंडेंसी रेट है; और ऐसे एग्रेसिव वातावरण से तंग आकर पीड़िताएं अकसर होस्टाइल हो जाती है और केस को आगे नहीं लड़तीI ठीक इसी वजह से पोक्सो केसेस में कन्विक्शन रेट बेहत कम है, और हम इन आस्पेक्ट्स पे बिकुल चर्चा ही नहीं कर रहे|
इसके अलावा, 2018 आर्डिनेंस दो महीने के अंदर इन्वेस्टीगेशन ख़तम करके, पीड़िताओं को न्याय देने की मांग कर रहा हैI पर मुझे लगता है की ऐसे ‘कुइक फिक्स सलूशन’ सिर्फ पेपर में पढ़ने के लिए ठीक है,असल में ऐसा करने से पुलिस इन्वेस्टीगेशन की क्वालिटी में बेहत हानि होगीI और फिर हमे ये नहीं भूलना चाहिए की भारत में उस तरह का पुलिस व जुडिशल इंफ्रास्ट्रक्चर (स्टाफ) ही नहीं है जो पोस्को मामले दो महीनो में निपटा सकेI
हमारी लड़ाई सिर्फ पॉक्सो कोर्ट के जरिये एक्सेस टू जस्टिस के अवसर दिलाना ही नहीं, बल्कि पोक्सो एक्ट के इम्प्रॉपर इम्प्लीमेंटेशन के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाना भी हैI मीडिया इंडस्ट्री अपराध व न्याय क्षेत्र में काम कर रहे एक्सपर्ट्स से कंसल्ट करके अपनी स्टोरीज जनता के लिए और शिक्षाप्रद बना सकती है, और मुझे पूरा विश्वास है की भास्कर अभियान से जुड़के मैं और मेरा रिसर्च सेण्टर उनकी आवाज़ सरकार के निति निर्माताओं तक ज़रूर पहुंचाएंगे|
आर. रोचिन चंद्रा आर. रोचिन चंद्रा
निर्देशक एवं मुख्य अपराधशास्त्री, निर्देशक एवं मुख्य अपराधशास्त्री,
सेण्टर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड पब्लिक पॉलिसी सेण्टर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड पब्लिक पॉलिसी
7 जुलाई, 2018 7 जुलाई, 2018
This position paper was originally published in Udaipur Times on July 7, 2018