देश भर में बाल दुष्कर्म के बढ़ते मामलों की कड़ी निंदा करते हुए केंद्र सरकार ने इस पर नियंत्रण के लिए दुष्कर्मियों को मृत्यु दंड देने का प्रावधान बनाया है| इससे पहले 2013 में निर्भया रेप काण्ड के बाद केंद्र सरकार ने महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा के लिए एंटी रपे लॉज़ बनाये| इतने सख्त और कड़े क़ानून होने के बावजूद भी नाबालिगों से दुष्कर्म की घटनाएं निरंतर बढ़ रही है|तो, कैसे रोका जाए नाबालिग बच्चियों से दुष्कर्म जैसे घृणित कार्य को? आइए जानते है इस पोजीशन पेपर के ज़रिये|
अगर देश भर में नाबालिग बच्चियों के साथ हुए 19,765 दुष्कर्म के मामलों को सुनकर आप अचंभित है, तो आपको सुनकर ताज्जुब होगा की ये आंकड़े एक बड़ी समस्या की छोटी सी जलक है| दरअसल ऐसे अपराधों की संख्या 19,765 से कई ज़्यादा होगी, क्यूंकि ये आंकड़े केवल रिपोर्टेड केसेस का एक अनुमान है, जिसमें कई हज़ार मामलें तो ऐसे होंगे जहाँ परिवार के लोगो ने पुलिस थाने में न जाकर अनौपचारिक तरीकों से मामले को निपटा दिया होगा या फिर क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो में अपने रेंज का अपराध दर, ज़्यादा दिखने के डर से पुलिस ने दर्ज नहीं किया होगा|
भारत में यौन शोषण, ख़ास करके के नाबालिगों का, एक कल्चरली सेंसिटिव मुद्दा है| इसकी शिकार हुई बच्चियों के माता -पिता, समाज में अपना मान सम्मान बनाये रखने के लिए, अपनी शिकायत पुलिस थाने में दर्ज ही नहीं करवाते| इसके अलावा, कई हज़ार मामलों में तो बाल यौन शोषण का पता ही नहीं चलता, इसलिए वे दर्ज ही नहीं होते|
नाबालिग बच्चियों से दुष्कर्म एक बहुत ही गुप्त और जटिल प्रकार का अपराध है| मैंने अपने शोध में इसके तीन प्रमुख कारण पाए हैं| पहला – 90 प्रतिशद मामलों में दुष्कर्मी करीबी रिश्तेदार या फिर नज़दीकी दोस्त होते है, जिस पर बच्ची के पेरेंट्स काफी विश्वास करते है| दुष्कर्म का ये ‘इंट्राफेमिलियल नेचर’ बच्चियों को अक्सर हतोत्साहित करता है कि, दुष्कर्म का खुलासा करने पे, कोई उनकी बातों पर विशवास नहीं करेगा| दूसरा- पीड़ित को लगातार एक बात खटकती है, कि इस वारदात का पता चलने पर उनके दोस्त उनका मज़ाक उड़ाएंगे, शर्मनाक नज़रों से देखेंगे और तरह तरह की बातें बनाएंगे| इन सब बातों के डर से वे अपने साथ हुई ज्यातती को छुपा के रखती है| तीसरा- बच्चियों की नासमझी, उनका भोलापन और आसानी से प्रभावित होने वाली उम्र उन्हें अक्सर हानिकारक स्थिति में धकेल देती है| उनकी इन्ही कमज़ोरियों का फायदा उठाते हुए दुष्कर्मी, बच्चियों को हमेशा डरा धमकाकर रखते है, जिसकी वजह से वे अपने शोषण का खुलासा नहीं कर पाती|
बाल दुष्कर्म की घटनाएं समाज के सामूहिक विवेक को हिला देता है| जिसकी वजह से आम जनता भावुक हो उठती है, और यौन अपराधों के खिलाफ अपना क्रोध प्रकट करते हुए पीड़िताओं को न्याय देने की मांग करती है| लेकिन गौरतलब है कि आम जनता के लिए न्याय का मतलब है – दुष्कर्म के प्रतिशोध में अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाना|
उन्हें लगता है की सख्त क़ानून लागू करने से दुष्कर्मी के दिमाग में एक खौफ पैदा होगा, और दर्दनाक सजा मिलने के डर से वे ऐसा घृणित कार्य नहीं करेंगे| दुर्भाग्यवश, जनता की इस मांग का सरकार और राजनीतिक दलों पे गहरे असर पड़ता है, और वे लोक प्रशासन पे जनता का विशवास बनाये रखने के लिए बाल दुष्कर्म की घटनाओं के मुख्य कारण (यानी की, उनकी बिमारी…) जाने बिना, दुष्कर्मी को कड़ी से कड़ी सजा देने की व्यवस्था करते है| निर्भया हत्या काण्ड के बाद होने वाले नीतिगत बदलाव और विधायी सुधार, सरकार की इस ‘स्थितिजन्य मज़बूरी’ का अच्छा उदहारण है| उस समय भी केंद्र सरकार के पास दुष्कर्म की समस्या के सिर्फ दो ही उपाय थे: या तो सजा बढ़ाओ या फिर कंपनसेशन| इसलिए आप देखेंगे की जैसे-जेसे बाल दुष्कर्म की घटनाएं गंभीर हो रही है, सरकार उसके रोकथाम के लिए दुष्कर्मियों को लम्बी एवं कड़ी सजा देने के साथ-साथ इन्साफ के नाम पे पीड़िताओं को मोटी कंपनसेशन की रकम भी दे रही है| लेकिन ये सिर्फ एक मात्रात्मक (क्वांटिटेटिव..) उपाय है, जिसे पहले मध्य प्रदेश सरकार ने भावुकता में अपनाया और अब उन्हें देखा-देख केंद्र सरकार भी बाल दुष्कर्म की समस्या को मृत्यु दंड (और लम्बी एवं कठोर सजा..) के ज़रिये नियंत्रण में लाने की कोशिश कर रही है|
लेकिन क्या इस निति को अपनाने से दुष्कर्म की समस्या का कोई समाधान होगा? अगर मृत्यु दंड शासन के होते हुए भी राज्य भर में दुष्कर्मी बेख़ौफ़ नाबालिगों से ज्यातती करते रहे, तो सरकार क्या करेगी?
बाल दुष्कर्म को रोकने के लिए मृत्यु दंड शासन एक असरदार साधन नहीं है| इस निति को अपनाने से पहले केंद्र सरकार द्वारा किसी भी तरह की ‘स्टडी का साइंटिफिक असेसमेंट’ नहीं किया गया कि, असल में मृत्यु दंड बाल दुष्कर्म निवारण है या नहीं ? वर्त्तमान में सरकार के पास ऐसा कोई एविडेंस बेस्ड डॉक्यूमेंट नहीं है जो कहता हो कि, फांसी की सजा दुष्कर्मियों के दिमाग में खौफ पैदा करता है, और इससे बाल दुष्कर्म की घटनाएं कम होती है| और तो और, हाल ही में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली ने डेथ पेनल्टी पे एक रिपोर्ट निकाली है, जिससे ये निष्कर्ष निकला है की फांसी देने से अपराध की गतिविधियां कम नहीं होती| बल्कि इतनी क्रूर सजा देने से, क्राइम रेट और बढ़ जाता है| 2012 निर्भया रेप कांड के बाद भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला| क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट, 2013 के अंतर्गत महिलाओं और नाबालिगों के विरुद्ध यौन अपराधों के लिए इतनी सख्त सजा होने के बावजूत देश में दुष्कर्म के मामलें कम नहीं हुए, बल्कि और तेज़ी व भारी संख्या में बढे| जिसमे, एनसीआरबी के अनुसार, ज्यादातर घटनाएं नाबालिकों के विरुद्ध घटी| इससे साफ़ प्रतीत होता है की, मृत्यु दंड साशन, बिना किसी रिसर्च एविडेंस या कंसल्टेशन के लिया गया निर्णय है, जो निति निर्माताओं की मान्यताओं, विचारधाराओं, और भावुकता पे आधारित है|
मृत्यु दंड साशन के कई काउंटर प्रोडक्टिव इफेक्ट्स है| जैसे की: मृत्यु दंड की सजा लागू करने से सरकार को न केवल दुष्कर्मियों के जेल में खाने -पीने-रहने का खर्चा उठाना पड़ेगा, बल्कि उनकी लीगल अपील्स का वित्तीय बोझ भी ढोना पड़ेगा| ये अपील्स अमूमन व्यापक और जटिल होने के साथ-साथ बेहत धीमे होने के कारण लगभग 10 से 14 साल तक चलती है| मृत्यु दंड शासन की ये कठिन प्रक्रिया, जेल प्रबंधन का वार्षिक खर्च अकल्पनीय रूप से बढ़ा देगा| इसलिए टैक्स पयेर्स का इतना पैसा दुष्कर्मियों पे खर्च करने से उचित है की राज्य सरकार उसे कम्युनिटी बेस्ड चाइल्ड एब्यूज प्रिवेंशन स्ट्रेटेजीज और विक्टिम वेलफेयर स्कीम्स बनाने में डाले|
सिर्फ ये ही नहीं, जहाँ सरकार मृत्यु दंड के ज़रिये दुष्कर्मियों के दिमाग में खौफ पैदा करने की बात कर रही है, वही वो ये भी भूल रही है कि मृत्यु दंड की सजा से बचने कि लिए दुष्कर्मी अब बच्चियों को रेप के बाद जान से मार सकते हैं, ताकि गवाही देने के लिए, केस का प्राइम विटनेस ही ना रहे और अपराध भी छुप जाये| सरकार को ये समझना होगा की नाबालिग बच्चियों को इन्साफ देने का मतलब है: उनकी चोटों की भरपाई करना, उन्हें उसी अवस्था या स्थिति में वापस लेके आना जैसे वे दुष्कर्म होने से पहले थी|
मृत्यु दंड की सजा देकर नाबालिग बच्चियों के साथ इन्साफ करने की धारणा को जनता का समर्थन इसलिए मिल रहा है क्यूंकि उनका मानना है कि नाबालिक बच्चियों से दुष्कर्म की सजा, और उनके साथ हुए घृणित कार्य की गंभीरता अनुपात में नहीं है| दूसरे शब्दों में यदि कहा जाए तो, इस धारणा के अनुसार बाल दुष्कर्मियों को आजीवन कारावास की सजा देने का मतलब है, पीड़ित बच्चियों को इन्साफ देने से मन करना| पर क्या मृत्यु दंड देना, दुष्कर्म पीड़िताओं को इन्साफ देने का सही उपाय है? बिलकुल नहीं | ऐसा इसलिए, क्यूंकि न्यायशास्त्र हमेशा प्रत्याशित (प्रोस्पेक्टिव) होता है, नाकि पूर्वप्रभावी (रेट्रोस्पेक्टिव)| हाँ, मृत्यु दंड देने से जनता का गुस्सा ज़रूर शांत हो जाएगा| किन्तु ये बदलाव उन नबालिग बच्चियों के साथ नाइंसाफी करेगा, जिनके दुष्कर्मी इस कानून के लागू होने के बाद भी पुराने पोक्सो एक्ट के अनुसार, केवल पांच साल की सजा काटेंगे| ऐसा इसलिए क्यूंकि मृत्यु दंड की सजा सिर्फ इस कानून के लागू होने के बाद होने वाले बाल दुष्कर्म के मामलों में वितरित की जाएगी| जितनी भी बाल दुष्कर्म की वारदात मृत्यु दंड शासन के लागू होने से पहले घटी थी, वे मामलें पुराने पोक्सो एक्ट के नियमों के अनुसार अभियुक्त (ट्राई) किये जायेंगे| अतः इंडियन पीनल कोड में संशोदन कर, मृत्यु दंड की सजा लाने से सरकार अलग-अलग न्याय करेगी, जहाँ कुछ बच्चियों का दुष्कर्म दूसरी बच्चियों के दुष्कर्म से अधिक गंभीर माना जाएगा|
क्या सभी बाल दुष्कर्म की घटनाएं गंभीर नहीं है?
पेरेंट्स को करना होगा सेंसिटाईज़
इस लड़ाई में पेरेंट्स को सक्रिय भूमिका निभानी होगी| हमे माता पिता और स्कूल अथॉरिटीज को एजुकेशनल वीडियोस के माध्यम से चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज के जोखिमों के बारे में सेंसिटीज़ करना होगा| उसके लिए सरकार अपराध शास्त्रियों के ज़रिये ट्रेनिंग, सेमिनार्स, वर्कशॉप्स और कम्युनिटी बेस्ड कैपेसिटी बुल्डिंग प्रोग्राम्स बना सकती है| इन वर्कशॉप्स का फोकस इन तीन पहलुओं पर होना चाहिए:
इसके अलावा एक और सुझाव है जो बच्चियों को सेक्सुअल एब्यूज से बेहतर सुरक्षा देने में मदद करेगा| आम तौर पे, बाल दुष्कर्म के मामलों में हमारा ध्यान अक्सर अपराध करने वाले पे होता है, नाकि ये समझने में कि बाल दुष्कर्म की घटना किधर हुई, कब हुई, और कैसे हुई| किसी भी अपराध को करने के लिए ‘कृमिनोजेनिक ओप्पोरचुनिटी’ होने एक प्री-कंडीशन है| इसलिए हमे पेरेंट्स को बाल दुष्कर्म रोकने की प्लेस-बेस्ड स्ट्रेटेजीज से राब्ता करना होगा, जिसमे उन्हें बताया जाए की बाल यौन शोषण की घटनाएं डोमेस्टिक, ऑर्गनाइजेशनल, पब्लिक, एवं वर्चुअल सेटिंग में किस तरह होना संभव है|
जेंडर शिक्षा देना ज़रूरी
दुष्कर्म से सुरक्षा देने के लिए पेरेंट्स को अपनी बच्चियों को जेंडर शिक्षा देनी होगी| उन्हें बताना होगा की आपके शरीर के किन अंगों को दूसरे आपकी अनुमति के बगैर नहीं छू सकते| पश्चिमी देशों में महज़ तीन साल की उम्र से ही बच्चियों को अपने शारीरिक अंगो को शिक्षा दी जाती है| उन्हें बताया जाता है की किस तरह का छूना अच्छा है और कौनसा बुरा| जेंडर शिक्षा से बच्चियाँ अनवांटेड सेक्सुअल एडवान्सेस को नकार सकेगी और उनसे भ्रमित नहीं होगी|
सेक्स एजुकेशन और क्रिमिनोलॉजी को स्कूल करिकुलम से जोड़ना होगा
स्कूल स्तर पे देखा जाये तो सरकार को सेक्स एजुकेशन देने का प्रावधान करना होगा| शिक्षकों को सेक्स एजुकेशन व प्राइवेट पार्ट्स के बारे में स्वस्थ तरीके से विचार विमर्श करने होंगे| इस शिक्षा से बच्चियाँ, माँ बाप व स्कूल अथॉरिटीज से एब्यूज का खुलासा करने से कतराएगी नहीं|
स्कूल में अपराध व पीड़ित शास्त्र जैसे विषयों को पढ़ाया जाना चाहिए| अगर बच्चियों को ये पढ़ाया जाए की लोग किस तरह अपराध करते है, केसा माहौल इन अपराधों को बढ़ावा देता है, तो वे काफी जागरूक और चौकन्नी रहेंगी| और आसानी से दुष्कर्म की शिकार नहीं होंगी| इसके अलावा इन विषयों से बच्चों को नैतिक शिक्षा भी मिलेंगी और उनका साहस बढ़ेगा| वे बखूबी अपनी सुरक्षा कर पाएंगी और ये समझ पाएंगी कि क्रीमीनोजेनिक परिस्थितियों में किस तरह रियेक्ट करना है, और भविष्य में उन परिस्तिथियों से कैसे बचना हैं|
और तो और, ये ऐसे विषय चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज रोकने में भी असरदार होंगे| क्यूंकि इससे बच्चों को, खाश करके लड़कों को, दुष्कर्म करने के परिणाम पता लगेंगे, और सजा का बेहतर अंदाजा होगा| उदयपुर में स्थित मेरी संस्था, सेण्टर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड पब्लिक पॉलिसी, ये काम जोरो शोरो से कर रही है| सरकार हमारे साथ एमओयू स्थापित करके पूरे प्रदेश में ऐसे विषय पढ़ाने के लिए रिसोर्स पर्सन्स ले सकती है|
दुष्कर्म पीडिताओं पे देने ध्यान देना होगा
एनजीओज़ और चाइल्ड प्रोटेक्शन कमिट्टीस को साथ आकर काम करना होगा| उन्हें चाइल्ड वेलफेयर व चाइल्ड रेस्क्यू प्रोग्राम्स बनने होंगे जिससे चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज की पीड़िताओं को मेडिकल और साइकोलॉजिकल असिस्टेंस मिल सके| और जो बच्चियां शर्म के कारण स्कूल से ड्रॉपआउट हो गई है, उन्हें फिर से स्कूल के साथ एकीकृत कर सकें|
मीडिया के जरिये जागरूकता लानी होगी
प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बच्चियों, पेरेंट्स और समाज को सशक्त करना होगा और उनकी अवेयरनेस बढ़ानी होगी| मीडिया को ऐसे शोध और आर्टिकल्स को बढ़ावा देना चाहिए, जो महिलाओं व बच्चियों के विरुद्ध बढ़ रहे भेदभाव, असमानता को चुनौती दे और उनको प्रोसोशल तरीको से सुलझाने के उपाए दे| इससे समाज में महिलाओं और नाबालिग बच्चियों के प्रति एक व्यवहारिक बदलाव आएगा और पुरुष एवं महिलाओं के बीच माने जाने वाले पावर इम्बैलेंस की सोच धीरे-धीरे ख़तम होगी|
This position paper represents the views of the Center for Criminology & Public Policy.
The author would like to thank all the experts who were consulted during the development of this position paper. Their names will be explicitly mentioned in the final document, as the Center submit its position to the parliamentarians and state legislators.
Photo Credits: North Light Solutions